24 मई 2025 ( सीमांत की आवाज )
**ऑपरेशन सिंदूर: सैनिकों का सम्मान या नेताओं की चमचागिरी?**
भारत की माटी में वीरता और बलिदान की गाथाएँ सदियों से गूंजती रही हैं। हमारे सैनिक, जो सीमाओं पर अपनी जान की बाजी लगाकर देश की रक्षा करते हैं, वे इस माटी के सच्चे सपूत हैं। हाल ही में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता ने एक बार फिर भारतीय सेना की शौर्य गाथा को विश्व पटल पर उजागर किया। इस ऑपरेशन की कामयाबी को देशभर में तिरंगा यात्राओं के जरिए उत्साहपूर्वक मनाया गया। लेकिन उत्तराखंड में आयोजित तिरंगा यात्रा ने एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है: क्या यह यात्रा सैनिकों के सम्मान के लिए थी, या नेताओं की चमचागिरी और दिखावे का एक और मौका बनकर रह गई?
तिरंगा यात्रा: उत्सव या दिखावा?
उत्तराखंड में कुछ वरिष्ठ सत्ताधारी नेताओं के नेतृत्व में ‘तिरंगा शौर्य सम्मान यात्रा’ का आयोजन किया गया। हजारों लोग, पूर्व सैनिक, युवा, और महिलाएँ इस यात्रा में शामिल हुए। तिरंगे की शान और देशभक्ति का जज्बा इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य था। लेकिन जब नारों की गूंज सुनाई दी, तो वे सैनिकों के बलिदान को सलाम करने के बजाय ज्यादातर मोदी सरकार और मुख्यमंत्री की तारीफों में डूबे हुए थे। यह दृश्य न केवल निराशाजनक था, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि क्या हमारी प्राथमिकताएँ वास्तव में देश के वीर सैनिकों के सम्मान में हैं, या सिर्फ सियासी चमक-दमक में?
सैनिकों का बलिदान: अनसुना, अनदेखा
‘ऑपरेशन सिंदूर’ में भारतीय सेना ने अपनी वीरता और रणनीतिक कुशलता का लोहा मनवाया। इस ऑपरेशन ने न केवल देश की सुरक्षा को मजबूत किया, बल्कि दुश्मनों को यह स्पष्ट संदेश भी दिया कि भारत की रक्षा पंक्ति अभेद्य है। लेकिन इस सफलता के पीछे उन सैनिकों की कहानियाँ हैं, जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाई। कुछ ने तो अपने प्राणों की आहुति तक दे दी। फिर भी, तिरंगा यात्रा में उनके नाम गूंजने के बजाय नेताओं के नारे और उनकी उपलब्धियों का बखान अधिक सुनाई दिया। यह एक कड़वा सच है कि हम अक्सर अपने असली नायकों को भूलकर सियासी चेहरों को महिमामंडित करने में लग जाते हैं।
चमचागिरी की हदें
तिरंगा यात्रा जैसे आयोजन देश की एकता और सैनिकों के सम्मान का प्रतीक होने चाहिए। लेकिन जब ये आयोजन सत्ताधारी नेताओं की प्रशंसा और उनकी छवि चमकाने का जरिया बन जाते हैं, तो इनका असली मकसद धूमिल हो जाता है। उत्तराखंड की इस यात्रा में ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ जैसे नारे तो गूंजे, लेकिन उन सैनिकों के नाम, जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर में अपने प्राण न्योछावर किए, शायद ही किसी ने याद किया। क्या यह सही मायनों में सैनिकों का सम्मान है? या यह सिर्फ नेताओं की चमचागिरी और जनता के सामने अपनी छवि चमकाने का एक और अवसर था?
सैनिकों के सम्मान का सही तरीका
सैनिकों का सम्मान केवल नारों और रैलियों तक सीमित नहीं होना चाहिए। यह सम्मान तब सार्थक होता है, जब हम उनके परिवारों की सुध लें, उनके बच्चों की शिक्षा और भविष्य को सुरक्षित करें, और उनके बलिदान को समाज में एक प्रेरणा के रूप में स्थापित करें। तिरंगा यात्रा में अगर ‘भारत माता की जय’ और ‘भारतीय सेना जिंदाबाद’ जैसे नारे गूंजते, और उन वीर सैनिकों के नाम लिए जाते, जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर में अपनी जान दी, तो शायद यह आयोजन वास्तव में सैनिकों के प्रति हमारी कृतज्ञता को दर्शाता।
एक अपील: असली नायकों को याद करें
देशभक्ति का मतलब केवल तिरंगा लहराना या जोशीले नारे लगाना नहीं है। यह उन सैनिकों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि देने में है, जो हमारी आजादी और सुरक्षा के लिए हर पल अपनी जान जोखिम में डालते हैं। हमें चाहिए कि हम अपने नेताओं से सवाल करें: क्यों सैनिकों के नाम गुमनाम रह जाते हैं, जबकि सियासी नारे सुर्खियाँ बटोरते हैं? हमें चाहिए कि हम ऐसी तिरंगा यात्राओं को सही मायनों में सैनिकों के सम्मान का प्रतीक बनाएँ, न कि सियासी मंच।
निष्कर्ष
‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है। लेकिन इस गर्व को सही दिशा में ले जाना हमारी जिम्मेदारी है। उत्तराखंड की तिरंगा यात्रा ने हमें यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या हम वास्तव में अपने सैनिकों का सम्मान कर रहे हैं, या सिर्फ सियासी चमक-दमक में खो गए हैं। आइए, हम अपने असली नायकों को याद करें, उनके बलिदान को सलाम करें, और यह सुनिश्चित करें कि तिरंगा यात्राएँ सैनिकों के सम्मान का प्रतीक बनें, न कि नेताओं की चमचागिरी का मंच।
**जय हिंद! जय जवान!**